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कविता

मोह की नदी

बुद्धिनाथ मिश्र


दोने में धरे किसी दीप की तरह
वक्त की नदी में हम बह रहे उधर
शोख लहर हमको ले जा रही जिधर।

ऊपर हैं तेज हवा के झोंके
बाती बुझ जाए कब क्या पता
नीचे जल ही जल है, माटी का
यह तन गल जाए कब क्या पता
डाली से टूट गिरे फूल की तरह
उम्र की नदी में हम बह रहे उधर
शोख लहर हमको ले जा रही जिधर।

कई-कई घाट बगल से गुजरे
लेकिन पा सका कहीं ठौर नहीं
मन का संबंध किसी और जगह
लहरें ले जाती हैं और कहीं
बाढ़ में उजड़ गए मृणाल की तरह
मोह की नदी में हम बह रहे उधर
शोख लहर हमको ले जा रही जिधर।

कितने अंतर्विरोध झेलकर
संधिपत्र लिखें नदी के कछार
कहाँ सँजोकर रक्खे तमस-द्वीप
पितरों के सूर्यमुखी संस्कार
संभावित वृक्ष - शालबीज की तरह
रेत की नदी में हम बह रहे उधर
शोख लहर हमको ले जा रही जिधर।

 


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